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 STONE AGE (पाषाण काल)
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(पाषाण काल)

STONE AGE

STONE AGE जिस काल का कोई लिखित साक्ष्य नहीं मिलता है! उसे ‘प्रागैतिहासिक काल’ कहते हैं। ‘आद्य-ऐतिहासिक काल’ में लिपि के साक्ष्य तो हैं!किंतु उनके अपठ्य या दुर्बोध होने के कारण उनसे कोई निष्कर्ष नहीं निकलता है! जब से लिखित विवरण मिलते हैं,वह ‘ऐतिहासिक काल’ है।

प्रागैतिहास के अंतर्गत पाषाण कालीन सभ्यता है ! तथा आद्य-इतिहास के अंतर्गत सिंधु घाटी सभ्यता एवं वैदिक सभ्यता आती है! जबकि छठी शताब्दी ईसा पूर्व से ऐतिहासिक काल का आरंभ होता है।

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सर्वप्रथम 1863 ई. में भारत में पाषाण कालीन सभ्यता का अनुसंधान प्रारंभ हुआ।

उपकरणों की भिन्नता के आधार पर संपूर्ण पाषाण युगीन संस्कृति को तीन मुख्य चरणों में विभाजित किया गया।

ये हैं!-पुरापाषाण काल, मध्यपाषाण काल और नवपाषाण काल

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उपकरणों की भिन्नता के आधार पर पुरापाषाण काल को भी तीन कालों में विभाजित किया जाता है ! –

  1. पूर्व पुरापाषाण काल-कोड उपकरण (हस्तकुठार खंडक विदारिणी), 2. मध्य पुरापाषाण काल-फलक उपकरण तथा

3. उच्च पुरापाषाण कालतक्षिणी एवं खुरचनी उपकरण!

सर्वप्रथम पंजाब की सोहन नदी घाटी (पाकिस्तान) से चापर-चापिंग पेबुल संस्कृति के उपकरण प्राप्त हुए!

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सर्वप्रथम मद्रास के समीप बदमदुरै तथा अत्तिरपक्कम से हैंडऐक्स संस्कृति के उपकरण प्राप्त किए गए!

इस संस्कृति के अन्य उपकरण क्लीवर, स्क्रेपर आदि हैं!रॉबर्ट ब्रूस फुट ब्रिटिश भूगर्भ- वैज्ञानिक और पुरातत्वविद थे!1863 ई. में रॉबर्ट ब्रूस फुट ने मद्रास के पास ‘पल्लवरम’ नामक स्थान से पहला हैंडऐक्स प्राप्त किया था! उनके मित्र किंग ने अत्तिरमपक्कम से पूर्व पाषाण काल के उपकरण खोज निकाले!

वर्ष 1935 में डी. टेरा के नेतृत्व में एल कैम्ब्रिज अभियान दल ने सोहन घाटी में सबसे महत्वपूर्ण अनुसंधान किए!बेलन घाटी में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जी.आर. शर्मा के निर्देशन में अनुसंधान किया गया है! पूर्व पुरापाषाण काल से संबंधित यहां 44 पुरास्थल प्राप्त हुए हैं!

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उपकरणों के अतिरिक्त बेलन के लोहदा नाला क्षेत्र से इस काल की अस्थि निर्मित मातृदेवी की एक प्रतिमा मिली है!जो संप्रति कौशाम्बी संग्रहालय में सरक्षित है!

फलकों की अधिकता के कारण मध्य पुरापाषाण काल को ‘फलक संस्कृति’ भी कहा जाता है! इन उपकरणों का निर्माण क्वार्टजाइट पत्थरों से किया गया है!

पुरापाषाण कालीन मानव का जीवन पूर्णतया  प्राकतिक था! वे प्रधानतः शिकार पर निर्भर रहते थे !तथा उनका भोजन मांस अथवा कंदमूल हुआ करता था! अग्नि के प्रयोग से अपरिचित रहने के कारण वे मांस कच्चा खाते थे।

“इस युग का मानव शिकारी एवं खाद्य संग्राहक था! इस काल के मानव को पशुपालन तथा कृषि का ज्ञान नहीं था!भारत में मध्यपाषाण काल के विषय में जानकारी सर्वप्रथम 1867 ई.में हुई! जब सी.एल. कार्लाइल ने विध्य क्षेत्र से लघु पाषाणोपकर खोज निकाले!

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मध्यपाषाण काल के विशिष्ट औजार सूक्ष्म पाषाण या पत्थर के बहुत छोटे औजार है! भारत में मानव अस्थि पंजर सर्वप्रथम मध्यपाषाण काल से ही प्राप्त होने लगता है! गुजरात स्थित लंघनाज सबसे महत्वपर्ण परास्थल है! यहां से लघु पाषाणोपकरणों के अतिरिक्त पशुओं की हड़ियां, कब्रिस्तान तथा कुछ मिट्टी के बर्तन भी प्राप्त हुए हैं!यहां से 14 मानव कंकाल भी मिले हैं!

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मध्यपाषाण कालीन महदहा (प्रतापगढ़, उ.प्र.) से हड्डी एवं सींग निर्मित उपकरण प्राप्त हुए हैं!

जी.आर. शर्मा ने महदहा के तीन क्षेत्रों का उल्लेख किया है! जो झील क्षेत्र, बूचड़खाना संकुल क्षेत्र एवं कब्रिस्तान निवास क्षेत्र में बंटा था!बूचड़खाना संकुल क्षेत्र से ही हड्डी एवं सींग निर्मित उपकरण एवं आभूषण बड़े पैमाने पर पाए गए हैं!

डॉ. जयनारायण पाण्डेय द्वारा लिखित पुस्तक ‘पुरातत्व विमर्श’ में महदहा, सराय नाहर राय एवं दमदमा तीनों ही स्थलों से हड्डी के उपकरण एवं आभूषण पाए जाने का उल्लेख है।

दमदमा में किए गए उत्खनन के फलस्वरूप पश्चिमी तथा मध्यवर्ती क्षेत्रों से कुल मिलाकर 41 मानव शवाधान ज्ञात हुए हैं। इन शवाधानों में से 5 शवाधान युग्म-शवाधान हैं ।और एक शवाधान में 3 मानव कंकाल एक साथ दफनाए हुए मिले हैं। शेष शवाधानों में एक-एक कंकाल मिले हैं।सराय नाहर राय से ऐसी समाधि मिली है जिसमें चार मानव कंकाल एक साथ दफनाए गए थे। यहां की कः (समाधियां) आवास क्षेत्र के अंदर स्थित थीं! करें छिछली तथा अंडाकार थीं।

विंध्य क्षेत्र के लेखहिया के शिलाश्रय संख्या 1 से मध्य पाषाणिक लघु पाषाण उपकरणों के अतिरिक्त सत्रह मानव कंकाल प्राप्त हुए हैं! जिनमें से कुछ सुरक्षित हालत में हैं ।तथा अधिकांश क्षत-विक्षत हैं।अमेरिका के ओरेगॉन विश्वविद्यालय के जॉन आर. लुकास के अनुसार, लेखहिया में कुल 27 मानव कंकालों की अस्थियां मिली है।

“पशुपालन का प्रारंभ मध्यपाषाण काल में हुआ। पशुपालन के साक्ष्य भारत में आदमगढ़ (होशंगाबाद, म.प्र.) तथा बागोर (भीलवाड़ा,राजस्थान) से प्राप्त हुए हैं।

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मध्यपाषाण काल के मानव शिकार करके, मछली पकड़कर और खाद्य वस्तुओं का संग्रह कर पेट भरते थे।मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित भीमबेटका प्रागैतिहासिक शैल चित्रकला का श्रेष्ठ उदाहरण है।

भारत में यहीं से चित्रकारी से युक्त सर्वाधिक 500 शिलाश्रय प्राप्त हुए हैं।यूनेस्को ने भीमबेटका शैल चित्रों को विश्व विरासत सूची में सम्मिलित किया है।

सर्वप्रथम खाद्यान्नों का उत्पादन नवपाषाण काल में प्रारंभ हुआ। इसी काल में गेहूं की कृषि प्रारंभ हुई।नवीनतम खोजों के आधार पर भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीनतम कृषि साक्ष्य वाला स्थल उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर जिले में स्थित लहुरादेव है।

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यहां से 9000 ई.पू. से 8000 ई.पू. मध्य के चावल के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। उल्लेखनीय है कि इस नवीनतम खोज के पूर्व भारतीय उपमहाद्वीप का प्राचीनतम कृषि साक्ष्य वाला स्थल मेहरगढ़ (पाकिस्तान के बलूचिस्तान में स्थित यहां से लगभग 7000 ई.पू. के गेहूं के साक्ष्य मिले हैं!) जबकि प्राचीनतम चावल के साक्ष्य वाला स्थल कोलडिहवा (इलाहाबाद जिले में बेलन नदी के तट पर स्थित यहां से 6500 ई.पू. के चावल की भूसी के साक्ष्य मिले हैं। माना जाता था।

चीन याग्त्जी नदी घाटी क्षेत्र में लगभग 7000 ई.पू. चावल उगाया गया। मक्का (लगभग 6000 ई.पू.) का प्रथम साक्ष्य मेक्सिको में पाया गया। बाजरा 5500 ई.पू. चीन में, सोरघम 5000 ई.पू. पूर्वी अफ्रीका में, राई 5000 ई.पू. में दक्षिण-पूर्व एशिया में तथा जई 2300 ई.पू. में यूरोप में सर्वप्रथम उगाया गया।

मेहरगढ़ से पाषाण संस्कृति से लेकर हड़प्पा सभ्यता तक के सांस्कृतिक अवशेष प्राप्त हुए हैं। मानव कंकाल के साथ कुत्ते का कंकाल बुर्जहोम (जम्मू-कश्मीर) से प्राप्त हुआ। गर्त आवास के साक्ष्य भी यहीं से प्राप्त हुए। इस पुरास्थल की खोज वर्ष 1935 में डी-टेरा एवं पीटरसन ने की थी। गुफकराल कश्मीर में स्थित नवपाषाणिक स्थल है। गुफकराल का अर्थ होता है!कुलाल अर्थात कुम्हार की गुहा।

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यहां के लोग कृषि एवं पशुपालन का कार्य करते थे। चिरांद बिहार के सारण जिले में स्थित है। यहां से नवपाषाणिक अवशेष प्राप्त हुए हैं।बुर्जहोम (जम्मू-कश्मीर) के पश्चात चिरांद से सर्वाधिक मात्रा में नवपाषाणिक उपकरण प्राप्त हुए हैं। यहां से हड्डी के अनेक उपकरण प्राप्त हुए हैं। यहां से प्राप्त उपकरण हिरण के सींगों से निर्मित हैं।

नवपाषाण युगीन दक्षिण भारत में मृतक को दफनाने के  स्थल के रूप में वृहत्पाषाण स्मारकों की पहचान की गई। नवपाषाण कालीन पुरास्थल से ‘राख के टीले’ कर्नाटक में मैसूर के पास वेल्लारी जनपद में स्थित संगनकल्लू नामक स्थान से प्राप्त हुए। पिकलीहल में भी राख के टीले मिले हैं। ये राख के टीले नवपाषाण युगीन पशुपालक समुदायों के मौसमी शिविरों के जले अवशेष हैं।

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आग का उपयोग नवपाषाण काल की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। धातुओं में सबसे पहले तांबे का प्रयोग हुआ। इस चरण में पत्थर एवं तांबे के उपकरणों का साथ-साथ प्रयोग जारी रहा। इसी कारण इसे ताम्रपाषाणिक संस्कति (कैल्कोलिथिक कल्चर) कहा जाता है। ताम्रपाषाणिक का अर्थ हैपत्थर एवं तांबे के प्रयोग की अवस्था। भारत में ताम्रपाषाण युग की बस्तियां दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिणपूर्वी भारत में पाई गई हैं।

दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में दो पुरास्थलों की खुदाई हुई है, ये हैं अहाड एवं गिलुंद।

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ये पुरास्थल बनास घाटी में स्थित हैं। बनास घाटी में स्थित होने के कारण इसे बनास संस्कृति भी कहते हैं।अहाड़ का प्राचीन नाम तांबवती अर्थात तांबा वाली जगह है। यहां के मकान पत्थर की चहारदीवारी से घिरे मिले हैं। अहाड़ के पास गिलुंद में मिट्टी की इमारत बनी है! पर कहीं-कहीं पक्की ईंटें भी लगी हैं। गिलुंद में तांबे के टुकड़े मिलते हैं।

अहाड़ संस्कृति अन्य ताम्रपाषाणिक संस्कृतियों से भिन्न है क्योंकि जहां दूसरे केंद्रों पर लाल व काले लेप के मृदभांड बने हैं! वहीं यहां पर इस लेप के ऊपर सफेद रंग से चित्रकारी की गई है।

पश्चिमी मध्य प्रदेश में मालवा, कायथा, एरण और नवदाटोली प्रमुख स्थल हैं। नवदाटोली, मध्य प्रदेश का एक महत्वपूर्ण ताम्रपाषाणिक पुरास्थल है!जो इंदौर के निकट स्थित है। इसका उत्खनन एच.डी. संकालिया ने कराया था। यहां से मिट्टी, बांस एवं फूस के बने चौकोर एवं वृत्ताकार घर मिले हैं। यहां के मूल मृदभांड लाल-काले रंग के हैं! जिन पर ज्यामितीय आरेख उत्कीर्ण हैं।

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कायथा संस्कृति, जो हड़प्पा संस्कृति की कनिष्ठ समकालीन है। इसके मृदभांडों में कुछ प्राक् हड़प्पीय लक्षण है! पर साथ ही इस पर हड़प्पाई प्रभाव भी दिखाई देता है। इस संस्कृति की लगभग 40 बस्तियां मालवा क्षेत्र से प्राप्त हुई हैं! जो अत्यंत छोटी-छोटी हैं।

मालवा संस्कृति अपनी मृदभांडों की उत्कृष्टता के लिए जानी जाती है। मध्य प्रदेश में कायथा और एरण की तथा पश्चिमी महाराष्ट्र में इनामगांव की बस्तियां किलाबंद हैं। पश्चिमी महाराष्ट्र के प्रमुख पुरास्थल हैं-अहमदनगर जिले में जोर्वे, नेवासा और दैमाबाद; पुणे जिले में चंदोली, सोनगांव, इनामगांव, प्रकाश और नासिका ये सभी पुरास्थल जोर्वे संस्कृति के हैं। अब तक ज्ञात 200 जोर्वे स्थलों में गोदावरी का दैमाबाद सबसे बड़ा है।

यह लगभग 20 हेक्टेयर में फैला है जिसमें लगभग 4000 लोग रह सकते थे।

नेवासा (जोर्वे संस्कृति स्थल) से पटसन का साक्ष्य प्राप्त हुआ है।

महाराष्ट्र की ताम्रपाषाण कालीन संस्कृति (जोर्वे संस्कृति) के नेवासा, दैमाबाद, चंदोली, इनामगांव आदि पुरास्थलों में घरों में मृतकों को अस्थि कलश में रखकर उत्तर से दक्षिण दिशा में घरों के फर्श के नीचे दफनाए जाने के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

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आरंभिक ताम्रपाषाण अवस्था के इनामगांव स्थल पर चूल्हों सहित बड़े-बड़े कच्ची मिट्टी के मकान और गोलाकार गड्ढों वाले मकान मिले हैं।पश्चात की अवस्था (1300-1000 ई.पू.) में पांच कमरों वाला एक मकान मिला है, जिसमें चार कमरे आयताकार हैं ।और एक वृत्ताकार।

इनामगांव में सौ से अधिक घर और अनेक कलें पाई गई हैं। यह बस्ती किलाबंद है और खाई से घिरी हुई है। यहां शिल्पी या पंसारी लोग पश्चिम छोर पर रहते थे जबकि सरदार प्रायः केंद्र स्थल में रहता था।

पूर्वी भारत में गंगातटवर्ती चिरांद के अलावा, बर्दवान जिले के पांडु राजार ढिबि और पश्चिम बंगाल के बीरभूम जिले में महिषदल उल्लेखनीय ताम्रकालीन स्थल है।

कुछ अन्य पुरास्थल जहां खुदाई हुई वे हैं!बिहार में सेनुवार, सोनपुर और ताराडीह तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में खैराडीह और नरहन। बिहार, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में रहने वाले लोग टोंटी वाले जलपात्र, गोड़ीदार तश्तरियां और गोड़ीदार कटोरे बनाते थे।

दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, पश्चिमी मध्य प्रदेश, पश्चिमी महाराष्ट्र और अन्यत्र रहने वाले ताम्रपाषाण युग के लोग मवेशी पालते और खेती करते थे। वे गाय, भेड़, बकरी और भैंस रखते थे! और हिरण का शिकार भी करते थे। ऊंट के भी अवशेष मिले हैं। मुख्य अनाज गेहूं और चावल के अतिरिक्त वे बाजरे की भी खेती करते थे।

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ताम्रपाषाण युग के लोग शिल्प-कर्म में निःसंदेह बड़े दक्ष थे और पत्थर का काम भी अच्छा करते थे।

वे कार्नेलियन, स्टेटाइट और क्वार्ट्ज क्रिस्टल जैसे अच्छे पत्थरों के मनके या गुटिकाएं भी बनाते थे। वे लोग कताई और बुनाई जानते थे! क्योंकि मालवा में चरखे और तकलियां मिली हैं।

महाराष्ट्र में कपास, सन और सेमल की रूई के बने धागे भी मिले हैं। इनामगांव में कुंभकार, धातुकार, हाथी-दांत के शिल्पी, चूना बनाने वाले और खिलौने की मिट्टी की मूर्ति (टेराकोटा) बनाने वाले कारीगर भी दिखाई देते हैं।

इनामगांव में मातृ-देवी की प्रतिमा मिली है!जो पश्चिमी एशिया में पाई जाने वाली ऐसी प्रतिमा से मिलती है। मालवा और राजस्थान में मिली रूढ़ शैली में बनी मिट्टी की वृषभ-मूर्तिकाएं यह सूचित करती हैं कि वृषभ (सांड) धार्मिक पंथ का प्रतीक था।

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पश्चिमी महाराष्ट्र की चंदोली और नेवासा बस्तियों में कुछ बच्चों के गलों में तांबे के मनकों का हार पहनाकर उन्हें दफनाया गया है जबकि अन्य बच्चों की कब्रों में सामान के तौर पर कुछ बर्तन मात्र हैं। महाराष्ट्र में मृतक को उत्तर-दक्षिण की दिशा में रखा जाता था। किंतु दक्षिण भारत में पूर्वपश्चिम की दिशा में। पश्चिमी भारत में लगभग संपूर्ण (एक्सटेंडेड बरिअल) शवाधान प्रचलित था! जबकि पूर्वी भारत में आंशिक शवाधान (फ्रैक्शनल बरिअल) चलता था।

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सबसे बड़ी निधि मध्य प्रदेश के गुंगेरिया से प्राप्त हुई है। इसमें 424 तांबे के औजार एवं हथियार तथा 102 चांदी के पतले पत्तर कायथा के एक घर में तांबे के 29 कंगन और दो अद्वितीय ढंग की कुल्हाड़ियां पाई गई हैं।इसी स्थान में स्टेटाइट और कार्नेलियन जैसे कीमती पत्थरों की गोलियों के हार पात्रों में जमा पाए गए हैं।गणेश्वर स्थल राजस्थान में खेत्री ताम्र-पट्टी के सीकर-झुंझनू क्षेत्र के तांबे की समृद्ध खानों के निकट पड़ता है। दक्षिण भारत में ब्रह्मगिरि, पिकलीहल, संगलकल्ल,मस्की, हल्लूर आदि से ताम्रपाषाण युगीन बस्तियों के साक्ष्य मिले हैं। दक्षिा भारत में कृषक की अपेक्षा चरवाहा संस्कृति का अधिक प्रमाण मिला है।

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